दूर गली के उस मोड़ पर
जहां दोनों किनारे मिल से जाते हैं
अक्सर मैं नजरें बिछा ताकता रहता हूं
आओगे इक रोज़ मेरे दरवाज़े तुम भी
बस यही खुद से कहता रहता हूं
गवाह हैं वो दोनों लैंप पोस्ट भी
जो मेरी कशिश से वाकिफ हैं
ना हो यकीन तो उन पीली गुलाबी चिकों से पूछो
जो हर रोज़ तुम्हारी खुश्बू संजोने के लिए गिर जाती हैं
ये जो बेलें इस घर की पेशानी पर रंग बिखेर रही हैं
ये उस दिन से हरी हैं जब तुम आखिरी बार इस राह से गुज़रे थे
आज चार रोज़ बीत गए, इंतज़ार और सहा नहीं जा रहा
बेलें कुछ मुरझाने की शिकायत कर रही हैं
चिको में खुश्बू भी कुछ कम सी होती जा रही है
सुनो! बताओ... आज आओगे? चिकें खोल दूं?
खुश्बू मुझे वापिस से भरनी है
निगाहें फिर से हरी करनी हैं।